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अ꣣र꣢ण्यो꣣र्नि꣡हि꣢तो जा꣣त꣡वे꣢दा꣣ ग꣡र्भ꣢ इ꣣वे꣡त्सुभृ꣢꣯तो ग꣣र्भि꣡णी꣢भिः । दि꣣वे꣡दि꣢व꣣ ई꣡ड्यो꣢ जागृ꣣व꣡द्भि꣢र्ह꣣वि꣡ष्म꣢द्भिर्मनु꣣꣬ष्ये꣢꣯भिर꣣ग्निः꣢ ॥७९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इवेत्सुभृतो गर्भिणीभिः । दिवेदिव ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः ॥७९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣र꣡ण्योः꣢ । नि꣡हि꣢꣯तः । नि꣡ । हि꣣तः । जा꣣तवे꣢दाः꣢ । जा꣣त꣢ । वे꣣दाः । ग꣡र्भः꣢꣯ । इ꣣व । इ꣢त् । सु꣡भृ꣢꣯तः । सु । भृ꣣तः । गर्भि꣡णी꣢भिः । दि꣣वे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे । ई꣡ड्यः꣢꣯ । जा꣣गृव꣡द्भिः꣢ । ह꣣वि꣡ष्म꣢द्भिः । म꣣नुष्ये꣢꣯भिः । अ꣣ग्निः꣢ ॥७९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 79 | (कौथोम) 1 » 2 » 3 » 7 | (रानायाणीय) 1 » 8 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

सर्वत्र अव्यक्तरूप में स्थित परमात्माग्नि को प्रकाशित करना चाहिए, यह अगले मन्त्र में वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ को जाननेवाला परमात्मा (अरण्योः) अरणियों के तुल्य विद्यमान जीवात्मा-प्रकृति, जीवात्मा-शरीर, द्युलोक-पृथिवीलोक और बुद्धि-मन में (निहितः) स्थित है। (गर्भिणीभिः) गर्भिणी स्त्रियों द्वारा (गर्भ इव) जैसे गर्भ धारण किया जाता है, (इत्) वैसे ही, वह (सुभृतः) उनके द्वारा सम्यक् प्रकार से धारण किया हुआ है। (अग्निः) वह परमात्मा (जागृवद्भिः) जागरूक (हविष्मद्भिः) आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण आदि को हवि बनाकर समर्पित करनेवाले (मनुष्येभिः) अध्यात्मयाजी मनुष्यों द्वारा (ईड्यः) पूजा करने योग्य है ॥७॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। गर्भ-गर्भि, दिवे-दिवे में छेकानुप्रास है ॥७॥

भावार्थभाषाः -

जैसे गर्भिणीयों में प्रच्छन्न-रूप से गर्भ स्थित होता है, वैसे ही परमात्मा-रूप अग्नि सब पदार्थों में प्रच्छन्नरूप से विद्यमान है। जैसे गर्भ के बाहर आने पर सम्बन्धी जन पुत्र-पुत्री के जन्म का उत्सव रचाते हैं, और पुत्र-पुत्री का लालन-पालन करते हैं, वैसे ही गुह्यरूप से सर्वत्र स्थित परमात्मा-रूप अग्नि को अपने सम्मुख प्रकट करके आध्यात्मिक जनों को महोत्सव मनाना चाहिए और परमात्माग्नि की आत्मसमर्पण-रूप हवि देकर पूजा करनी चाहिए ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सर्वत्राव्यक्ततया स्थितः परमात्माग्निः प्रकाशनीय इत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(जातवेदाः) जातं वेत्ति यः स सर्वज्ञः परमात्माग्निः (अरण्योः) अरणीवद् विद्यमानयोर्जीवात्मप्रकृत्योः, जीवात्मशरीरयोः, द्यावापृथिव्योः, बुद्धिमनसोर्वा (निहितः) स्थितोऽस्ति। (गर्भिणीभिः) गर्भयुक्ताभिः स्त्रीभिः (गर्भः इव) यथा गर्भस्तथा (इत्) एव (सुभृतः) ताभ्यां सुष्ठु धारितोऽस्ति। सः (अग्निः) परमात्मा (जागृवद्भिः२) जागरूकैः (हविष्मद्भिः) आत्ममनोबुद्धिप्राणादिकं हविष्कृत्वा समर्पणशीलैः (मनुष्येभिः) अध्यात्मयाजिभिर्जनैः। मनुष्यैरिति प्राप्ते बहुलं छन्दसि अ० ७।१।१० इति भिस ऐसभावः। (ईड्यः) अर्चनीयोऽस्ति ॥७॥ अत्रोपमालङ्कारः। गर्भ-गर्भि, दिवे-दिवे इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥७॥

भावार्थभाषाः -

यथा गर्भिणीषु सुगूढतया गर्भः स्थितो भवति तथैव परमात्माग्निः सर्वेषु पदार्थेष्वव्यक्ततया विद्यमानोऽस्ति। यथा गर्भे बहिरागते सम्बन्धिजनाः पुत्र-पुत्रीजन्मोत्सवं रचयन्ति, पुत्रं पुत्रीं च लालयन्ति तथैव प्रच्छन्नतया सर्वत्र स्थितं परमात्माग्निं स्वसंमुखे व्यक्तीकृत्याध्यात्मिकैर्जनैर्महोत्सवः करणीयः परमात्माग्निश्चात्मसमर्पणरूपेण हविर्दानेन पूजनीयः ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ३।२९।२ गर्भ इव सुधितो गर्भिणीषु इति पाठः। २. जागृ निद्राक्षये इत्यस्माद्धातोः लिटः क्वसौ जागृवानिति रूपसिद्धिः इति भ०।